Sushruta Samhita Set – 5
#1. सुश्रुतनुसार व्याधि के भेद है ।
#2. यो गले चोषमुत्पादयति, मुखवैशद्यं जनयति भक्तरुचि चापादयतिहर्षच सं……।
#3. मूत्राघात के भेद है।
#4. यह गण अभ्यंतर विद्रधि नाशक है ।
#5. वायु और आकाश को मूर्तिवान देखना है। उसे कहते हैं ।
#6. परिकर्तिका में बस्ति हितकर है।
#7. मधुमेह में जलपान करे ।
#8. स्वेदाप्रिजनन इसका कार्य है ।
#9. सर्वसार रोगों में धूम श्रेष्ठ है।
#10. स्नायुगत व्रण से वात के कारण इसके समान स्त्राव होता है ।
#11. प्रक्लेदनः ।
#12. एषणी का यह प्रकार सुश्रुत संहिता में वर्णित नहीं है।
#13. ‘सर्वशरीरावयवमार्दवकरश्चेति’ इस रस का कर्म है ।
#14. प्राय हेमंत ऋतु में…..अन्न खिलाकर अग्निकर्म करना चाहिये।
#15. वातपित्त व्रण की प्राकृत गंध होती है ।
#16. पृष्ठ प्रदेशी यह बंध बांधना चाहिए।
#17. क्षीरी वृक्ष का ग्रहण. वर्ष के अंदर ही करे ।
#18. निम्न स्थान पर क्षारकर्म वर्न्य है ।
#19. यह कालबलप्रवृत्त व्याधि है।
#20. यष्टिका भ्रामणं विधी जल में प्रयुक्त होती है।
#21. बस्ति की उत्तम मात्रा है।
#22. उपनयन करवाने के लिए ब्रह्मा की स्थापना इस दिशा में करवानी चाहिए ।
#23. यज्ञ के कटे हुये शिर का संधान किया है ।
#24. जतुमणी व्याधि हैं।
#25. त्रिभिर्दोषेनाक्रान्तः श्यावौष्ठः पिडकीसमः अवेदनो निरास्त्रावो व्रण … ।
#26. वातपित्त प्रकोप से उत्पन्न व्रण से इस के समान गंध आती है।
#27. यह शल्य शरीर के भीतर घुसने पर यदि उन्हें न निकाला जाये तो वे शीघ्र ही रक्त और मांस को पका देता है।
#28. विरेचन द्रव्य में इसका दुग्ध श्रेष्ठ है ।
#29. शुक दोष की संख्या है।
#30. यह अम्लरसात्मक द्रव्य श्रेष्ठ है ।
#31. मुख्य शल्य है।
#32. इस गुण को कृमिसूदन कहते है ।
#33. निम्न द्रव्य का उपयोग पुराना होने पर करे ।
#34. ‘नक्तांध्यानां प्रशस्यते’ गुण इस पुष्प का होता है।
#35. देवगण ग्रह संख्या है।
#36. कार्य चिकित्सार्थ वर्ज्य है।
#37. चिरात व्रण रोहति’ मर्म अतिविद्ध लक्षण है ।
#38. यह गुण के कारण द्रव्य जल में डाले हुए तैल की तरह अपनी शीघ्र गति से समस्त शरीर में फैलता है !
#39. निम्न में से इसका समावेश व्रणवस्तु में नहीं होता।
#40. ‘ज्योत्स्ना’ चिकित्सा के चतुर्वर्ग में समाविष्ट है।
#41. छेदनकर्म अभ्यासार्थ इसका प्रयोग होता है ।
#42. गुड के साथ वर्ज्य है।
#43. सुश्रुत संहिता के इस स्थान में कायचिकित्सा का वर्णन है ।
#44. अगदपान इस विषवेग चिकित्सा में निर्दिष्ट है।
#45. दहन का प्रकार है ।
#46. मनःशरीरबाधकराणि शल्यानि तेषामाहणोपायो ।
#47. …… संश्रिता गलगण्डे । इस जगह सिरावेध करे।
#48. शंखक रोग में इस दोष का प्रकोप होता है।
#49. व्याधि, अनि तथा रोगीबल के मध्यम होने पर चूर्ण प्रमाण होना चाहिये।
#50. इन द्रव्यों के कल्क तथा क्वाथ से चक्रतैल सिद्ध करने का विधान है ।
#51. जंघा प्रदेश का अंगुली प्रमाण है।
#52. वसन्त ऋतु में दक्षिण दिशा से वायु इस पर्वत से बहती है।
#53. अन्नशल्य को इस विधिद्वारा शरीर के बाहर निकाले ।
#54. अर्श में इस अवस्था में शस्त्र कर्म करना चाहिए ।
#55. कफेअनिले योनिदोषे शोषे कम्पे च तद्धितम् ।
#56. विदारीगंधादी गण दोषहर है।
#57. ….यो भविष्यत् व्याधिख्यापकः स पूर्वरूपसंज्ञः।
#58. कृमि जन्य हृदयरोग के उपद्रव किस प्रकार के उपद्रव के समान होते है।
#59. इस मर्म के दूषित होनेपर क्षवथु व्याधि होता है।
#60. औषधि सभी अन्न को निर्विष करती है।
#61. गण्डुपदमुखी यंत्र है।
#62. ताम्रवर्ण मृग को कहते हैं ।
#63. इक्षु के प्रकार को उत्तरोत्तर उष्ण के क्रम से लगाये ।
#64. कक्षा स्थान में यह बंध बांधते है ।
#65. गुढ शल्य निर्हरणार्थ उपयोगी यंत्र है।
#66. रक्त जीव इति स्थिति। संदर्भ ।
#67. पित्तज गलगण्ड का अतिमहत्वपुर्ण लक्षण है।
#68. सत्य विधान चुनिये ।
#69. ‘उर्ध्व च श्रवणौ स्थानम्’ आयु का लक्षण है ।
#70. हस्त की लंबाई इतने अंगुल होती है ।
#71. अविदग्धा एवं विदग्धा भेद से रसभेद होते है। सु.उ. 63/4
#72. यह धातु उष्ण होता है ।
#73. विटब्धाजीर्ण की चिकित्सा है।
#74. बुद्धि मेधा की वृद्धि होती है।
#75. देह के भेद है।
#76. इस भाग में गुप्त शल्य निर्हरणार्थ ‘खण्डचक्रसंयुक्त यान’ का उपयोग करे।
#77. कर्णावन्तरं……
#78. यह एकांततः पथ्यतम है ।
#79. व्रण में व्रणस्थान और व्रणस्त्राव वर्ण इसकी परीक्षा करने पश्चात् चिकित्सा नहीं करनी चाहिए। इसका योग्य क्रम लगावे । A) पक्वाशय B) रक्ताशय C) आमाशय, त्रिकसंधी / 1) कलायाग्भोनिमः 2) पुलोकोदकसन्निभः 3) क्षारोदकनिभः
#80. ऋतु और सेवन योग्य जल का योग्य मिलाप करे । A) वर्षा ऋतु B) शरद ऋतु C) हेमन्त ऋतु D) वसंत ऋतु / 1) सर्व प्रकार के जल 2) कौप जल 3) आन्तरीक्ष जल, औद्भि जल 4) सारस, ताडाग
#81. …….विज्ञेयोः प्रमेहादिषु रसविशेषाः।
#82. सुश्रुत नुसार सूतिका रोग में उत्तम तैल है।
#83. उष्ट्रग्रीव में बन्ध कौनसे दिन खोलनी चाहिए।
#84. मुखाभ्यंतर व्रण चिकित्सार्थ होते है ।
#85. तापस्वेद इस दोष का नाश करता है।
#86. शस्त्र रखने के लिये शाल्मली फलक उपयोग का उद्देश है।
#87. मूत्र का अनुरस हैं।
#88. तुण्डिकेरी विकार है।
#89. अवश्यायप्रतिम स्राव इस व्रण में होता है।
#90. रस शरीर में अर्चिसन्तानवत गति करता है ।
#91. शलाका का उपयोग दहनार्थ होता है। (सु.सू.12/4)
#92. सर्वदोषहर इस शाक का गुप है ।
#93. कर्णपालि सन्धानार्थ इस स्थान के मांस से कर्णपालि बनाने का उल्लेख है। (सु.सू. 16/16 )
#94. तत्र नद्यः सह्यप्रभवाः ….. ‘जनयन्ति । विन्ध्यप्रभवाः कुष्ठ ….रोगश्च ।
#95. सुश्रुत के अनुसार शोफ के प्रमुख प्रकार है। (सु.सु. 17/4)
#96. स्नान एवं उत्सादन न करने से बालक में व्याधि होता है।
#97. विलेपी…… (सु.सू. 46:347) श्लोक पुरा कीजिए ।
#98. व्रणी को इसका सेवन नहीं करना चाहिए !
#99. केवल एक वात दोष से होनेवाला पक्षाघात चिकित्सा की दुष्टि से होता है।
#100. नस्य प्रयोग इतने दिनों के अंतर पर प्रयुक्त करना चाहिए।
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