Sushruta Samhita Set – 2
#1. निम्न में तालफलवर्णसमान अनि दग्ध है ।
#2. चतुर्थी …… ।
#3. भगंदर की इस अवस्था में कटिकपाल बेदना होती है।
#4. शुद्ध व्रण में इसका प्रयोग करे।
#5. सुश्रुतनुसार अतिसार के भेद है।
#6. व्रण का यह उपक्रम मांस धातु के इस कर्म से साधर्म्यता रखता है।
#7. योग्य जोडियाँ लगाये । i) अवबद्ध, अनवबद्ध ii) प्रतिलोम, अनुलोम iii) सामान्य, विशेष / a) शल्यआहारण विधि b) शल्य भेद c) शल्य लक्षण
#8. विदारी सारीवा रजनी गुडूची अजश्रुंगी द्रव्यसंग्रह की संज्ञा है ।
#9. जन्म के आदि में एवं मृत्यु के पूर्व शरीर में रहनेवाला व्याधि है।
#10. कफघ्नं दीपनं हृदय लघु……द्रवम् ।
#11. कफ प्रधान वातरक्त में गोमूत्र के साथ प्रयोग करने का विधान है।
#12. यह माक्षिका प्राणनाशक होती है।
#13. युवावस्था वाले जांगम पशु-पक्षियों से ग्रहण करने का विधान है। (सु.सू.37:17)
#14. क्षार के गुण है।
#15. सर्पिप्रकाशः सान्द्रः श्वेतः पिच्छिलश्च ……. व्रणस्त्राव है।
#16. हीन कर्णपाली के उप्रदव है ।
#17. कफदोष का प्रमुख स्थान है ।
#18. मधुक पुष्प वर्ण के समान अश्मरी इस दोष के कारण से होती है।
#19. वसन्त ऋतु में दक्षिण दिशा से वायु इस पर्वत से बहती है।
#20. निंदित दूत का लक्षण है।
#21. मुष्कशोफ लक्षण है।
#22. चिकित्सा के दृष्टि से कठिण है। (सु.सू. 23/13)
#23. प्रसहमांस का अनुमान है ।
#24. सुश्रुत संहिता का 46 वा अध्याय है।
#25. सुश्रुत के अनुसार शोफ के प्रमुख प्रकार है। (सु.सु. 17/4)
#26. इक्षु के प्रकार को उत्तरोत्तर उष्ण के क्रम से लगाये ।
#27. अम्ल एवं लवण रस ये दोन …. विरुद्ध है। (सु.सू.20:16)
#28. उपनयन करवाने के लिए ब्रह्मा की स्थापना इस दिशा में करवानी चाहिए ।
#29. दीप्त रोग की श्रेष्ठ चिकित्सा है।
#30. शलाका का उपयोग दहनार्थ होता है। (सु.सू.12/4)
#31. कर्णावन्तरं……
#32. विदारीगंधादी गण दोषहर है।
#33. संग्रहकार के अनुसार दहन के प्रकार है।
#34. अवपीडन नस्य दोष के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
#35. इस ऋतु में उत्तर दिशा से वायु चलती है ।
#36. व्याध्युपसृष्टांनां व्याधि परिमोक्षः स्वस्थस्य रक्षणच्च। संदर्भ ।
#37. आयात चतुरस्खोवृत्त बस्ति पुटक इति ।
#38. कफज काच विकार चिकित्सा में है।
#39. ‘शल’, ‘श्वल’ आशुगमने धातुः । तस्य शल्यम् इति रूपम् । संदर्भ है !
#40. कच्चा बिल्वफल गुणात्मक है।
#41. रक्तमोक्षण के पूर्व रुग्ण को देना चाहिये ।
#42. बस्ति की उत्तम मात्रा है।
#43. गोदन्त द्वारा दहन कर्म किया जाता है ।
#44. स्तन्य शोधनार्थ उपयुक्त रस है ।
#45. गुरुमुख से शास्त्र पढ कर ग्रन्थात्मक अभ्यास करनेवाला वैद्य है। अन्य सभी को सुश्रुत ने कहा।
#46. अपानकी पर्याय है।
#47. अंगमर्द, पिपासा, हल्लास शल्य लक्षण है ।
#48. पशु के चिकित्सा में उपयुक्त जलौका है ।
#49. पैत्तिक गुल्म में श्रेष्ठ बस्ति है।
#50. आदित्यरश्मिभिः उदावर्त की चिकित्सा है।
#51. मूत्रपिच्छिलम् अनाविलम् विशदं तिक्तकटुकं तदाऽऽरोग्य प्रचक्षते । (सु.चि. 12/20 )
#52. वायु और आकाश को मूर्तिवान देखना है। उसे कहते हैं ।
#53. कीड लगे हुये काष्ट का प्रयोग यह कर्म सिखने के लिए करना चाहिए ।
#54. मन्दानि का प्रतिकार इससे करना चाहिए ।
#55. ‘आबाधकर’ का मतलब है।
#56. इस प्रधानता के 4 कारण बताये है।
#57. कोष्ठ दोष प्रधान होता है।
#58. दीपिका तैल का रोगाधिकार है।
#59. इस ऋतु में बहने वाली वायु नेत्र के लिए हितकारी होती है।
#60. सुश्रुत नुसार महारोग संख्या है।
#61. विरेचन में परिस्त्राव लक्षण वुमन का यह लक्षण है।
#62. ‘मुद्रिका शल्य’ इस अंगुली के अग्रिम पर्व के बराबर है।
#63. ‘धनुर्गुण बंध प्रयोग शल्य निर्हरणार्थ करे।
#64. प्रसर के प्रकार है ।
#65. ऋतु और सेवन योग्य जल का योग्य मिलाप करे । A) वर्षा ऋतु B) शरद ऋतु C) हेमन्त ऋतु D) वसंत ऋतु / 1) सर्व प्रकार के जल 2) कौप जल 3) आन्तरीक्ष जल, औद्भि जल 4) सारस, ताडाग
#66. कर्णगूथक में दोषदुष्टि होती है।
#67. .. रोगाणाम् विज्ञेयोपायः ।
#68. वक्त्र परीशोषयति जिव्हा स्तंभति’ इस रस का लक्षण है ।
#69. इस व्याधि में भक्तपूर्व घृतपान हितकर होता है।
#70. तत्रान्तरीक्षं चतुर्विधम्। तद्यथा-तौषारं हैममिति धारं कार उत्तरोत्तर प्रधानतम् के क्रम से लगाए।
#71. शरीर के अन्दर दूर तक न गया हुआ शल्य को प्रतिलोम करके उसी मार्ग से निकालने को कहते है ।
#72. अन्नशल्य को इस विधिद्वारा शरीर के बाहर निकाले ।
#73. क्षीरी वृक्ष का ग्रहण. वर्ष के अंदर ही करे ।
#74. ‘उर्ध्व च श्रवणौ स्थानम्’ आयु का लक्षण है ।
#75. जतुमणी व्याधि हैं।
#76. स्नायुगत व्याधियों में यह दहनोपकरण उपयुक्त होता है !
#77. स्थगिकाबन्धमाचरेत।
#78. यथा कुर्वति स … !
#79. 1 वर्ष आयु के लिए बस्ति नेत्र का आकार होना चाहिए।
#80. रक्त का अतिस्त्राव रोकने के लिये संधानार्थ इसका प्रयोग होता है ।
#81. गुरुशुक्रविवर्धनम् इसके गुण है।
#82. मूर्धा में स्नायू होते है।
#83. क्षार की गणना इसमें की है ।
#84. काश्मर्यफल का कर्म होता है।
#85. कक्षा स्थान में यह बंध बांधते है ।
#86. निम्न पदार्थों को उत्तरोत्तर शीत क्रम से लगाये । i)शर्करा ii) गुड iii) खाण्ड iv) मत्स्यण्डिका
#87. नक्तान्ध्य यह लक्षण व्याधि में मिलता है।
#88. दुग्ध घृत तैल सेवन इस विकार में हितकारी है।
#89. जलौकाघाट दिन पर बदलना चाहिये ।
#90. कफज शोथ में आप में इतने भाग स्नेह प्रयोग करते है ।
#91. पिपल पित्तशामक है ।
#92. निमेष व्याधि में दोष सिरावृत्त होते है।
#93. स्थावर स्नेह में प्रधान स्नेह है।
#94. कफस्थान में गये हुये वात का संशमन करने के लिए वमनार्थ इस द्रव्य का उपयोग करे ।
#95. शुक दोष की संख्या है।
#96. शरीराश्रित पित्त की तुलना सृष्टिगत इस भाव से की है।
#97. दद्रु में हितकर मूत्र है।
#98. व्यत्यासात् शंखोपरी च कर्णान्ते सिरावेधन।
#99. नासार्श प्रकार है।
#100. यह कालबलप्रवृत्त व्याधि है।
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