Sushruta Samhita Set – 1
#1. ‘मूत्रपुरीषाहारदर्शश्च व्रणमुखान्’ इस जगह पर शल्य होने का सुचक लक्षण है।
#2. सिन्धुवारं यह पर्यायी नाम है ।
#3. बात के बिना वेदना नहीं होती वैसे ही बिना नहीं हो …सकता है ।
#4. अवेदनो निरास्रावो…. इहोच्यते ।
#5. श्रीचक्रपाणिदत्तविरचित निदानस्थान पर उपलब्ध व्याख्या/ टिका का नाम है।
#6. उत्संगिनी नेत्र रोग है।
#7. संग्रहकार के अनुसार दहन के प्रकार है।
#8. इस आतुर का पूर्व पश्चात् स्वेदन करे।
#9. निम्न में से यन्त्र का दोष है ।
#10. ‘ज्योत्स्ना’ चिकित्सा के चतुर्वर्ग में समाविष्ट है।
#11. प्रक्लेदनः ।
#12. ‘उर्ध्व च श्रवणौ स्थानम्’ आयु का लक्षण है ।
#13. वक्त्र परीशोषयति जिव्हा स्तंभति’ इस रस का लक्षण है ।
#14. आगन्तुज व्रण के प्रकार है।
#15. प्राय हेमंत ऋतु में…..अन्न खिलाकर अग्निकर्म करना चाहिये।
#16. उदकमंचिका से जल का ….. करते है ।
#17. 35 वर्ष पुरुष का समावेश मध्य अवस्था के इस भेद में होता है।
#18. गुढ शल्य निर्हरणार्थ उपयोगी यंत्र है।
#19. इसमें दुष्ट रक्त मांसपेशीप्रभ होता है ।
#20. … प्रागेवोत्पन्नो यः प्रागेवोत्पन्नो व्याधिरपूर्वरूपोऽनुपद्रवश्च। (सु.सू.35:23)
#21. मुखाभ्यंतर व्रण चिकित्सार्थ होते है ।
#22. …… संश्रिता गलगण्डे । इस जगह सिरावेध करे।
#23. योनिमुखमावृत्य तिष्ठते स…….. ।
#24. नासा प्रतिनाह में इस वायु कफ से आवृत्त होता है।
#25. दीपिका तैल का रोगाधिकार है।
#26. अवश्यायप्रतिम स्राव इस व्रण में होता है।
#27. मुख्य शल्य है।
#28. सुश्रुत नुसार सूतिका रोग में उत्तम तैल है।
#29. तृणपंचमूल मूत्रदोष में अनुपान के साथ देना है। (सु.सू.35:3)
#30. कुलीन इसका पर्याय है।
#31. क्षार में यह रस अप्रधान होता है ।
#32. व्रणरोपणार्थ व्रण में इस तैल का तर्पण करते है।
#33. यष्टिका भ्रामणं विधी जल में प्रयुक्त होती है।
#34. निम्नतः इस विष में स्वेदन क्रिया निषिद्ध नहीं है।
#35. मन्दानि का प्रतिकार इससे करना चाहिए ।
#36. सर्पिप्रकाशः सान्द्रः श्वेतः पिच्छिलश्च ……. व्रणस्त्राव है।
#37. शरीराश्रित कफ कि तुलना सृष्टिगत इस भाव से कि है।
#38. अम्ललवण द्वंद्व …… विरुद्ध है।
#39. 1 वर्ष आयु के लिए बस्ति नेत्र का आकार होना चाहिए।
#40. शाक का यह भाग पचने में सबसे गुरु होता है। (सु.सू. 46:297)
#41. कलायपरिमण्डलमुभयतो मुकुलाग्रम, शलाका वर्णन है।
#42. गुरुशुक्रविवर्धनम् इसके गुण है।
#43. स्थिरीकरं च दंतानां’ इसके फल का गुण है ।
#44. ‘सर्वशरीरावयवमार्दवकरश्चेति’ इस रस का कर्म है ।
#45. वृणोति यस्मात् रुढेऽपि व्रणवस्तु न नश्यति। आदेह धारणात् तस्मात् व्रण इत्युच्यते बुधैः ।। संदर्भ ।
#46. नेत्रों के लिये हितकर धातु है ।
#47. उपरोक्त सभी सिरा बहुविधा मूत्रवृद्धिः दकोदरम् ।
#48. सन्तर्पणजन्य ज्वर की चिकित्सा है।
#49. कफमेदविषापहः । गण है।
#50. निम्न में से यह द्रव्य दुष्टि प्रसादक होता है।
#51. ‘सज्जोपस्करभेषज’ निम्न में से चतुष्पाद का गुण हैं ।
#52. अव्यवाय इस रोग का हेतु है।
#53. इस ऋतु में उत्तर दिशा से वायु चलती है ।
#54. विदारी सारीवा रजनी गुडूची अजश्रुंगी द्रव्यसंग्रह की संज्ञा है ।
#55. यह माक्षिका प्राणनाशक होती है।
#56. मध्यवय की मर्यादा है ।
#57. …..अतिचक्षुष्यं कफपित्तहरं परम् ।
#58. सुश्रुत संहिता में मुखरोग का वर्णन इस स्थान में किया है।
#59. …..सात प्रकार के रोगों के रूप में प्रगट होता है।
#60. यह धातु ‘चक्षुष्य’ होता है ।
#61. मनुष्य को दुःस्वप्न से मुक्त होने के लिए … दिन तक देवता के मंदिर में निवास करना चाहिये।(सु.सू.29:74)
#62. इक्षु के प्रकार को उत्तरोत्तर उष्ण के क्रम से लगाये ।
#63. निम्न में से स्थान पर अर्धचन्द्राकृति छेदन करे ।
#64. क्षार के गुण है।
#65. सिंघाणक प्रतिम व्रणस्त्राव होता है।
#66. अनवबद्धशल्य उद्धारणार्थ उपाय बताये है ।
#67. यह व्रण का पीडन करने वाला द्रव्य है ।
#68. रक्तस्राव रोकने के लिये प्रयुक्त उपक्रम में ‘हिम’ से होता है ।
#69. सम्यक कर्णवेधन पश्चात् परिसेचन करे।
#70. मधुक पुष्प वर्ण के समान अश्मरी इस दोष के कारण से होती है।
#71. कफदोष का प्रमुख स्थान है ।
#72. ….. निमित्यमेव स्थौल्यं कार्श्य च । सुश्रुत ।
#73. जांगल मांस वर्ग होते है ।
#74. निम्न में से द्रवीभूत शल्य है।
#75. वायु और आकाश को मूर्तिवान देखना है। उसे कहते हैं ।
#76. स्थावर स्नेह में प्रधान स्नेह है।
#77. हीन कर्णपाली के उप्रदव है ।
#78. मांसालावणं गात्रविश्लेष …. दग्ध के लक्षण है।
#79. अग्निदग्ध की चिकित्सा इसके समान करनी चाहिए ।
#80. दुग्ध घृत तैल सेवन इस विकार में हितकारी है।
#81. शस्त्र को धार लगाने की क्रिया को कहते हैं ।
#82. मूत्रपिच्छिलम् अनाविलम् विशदं तिक्तकटुकं तदाऽऽरोग्य प्रचक्षते । (सु.चि. 12/20 )
#83. ….. कफपित्तघ्नी मेहकुष्ठ विनाशनी । संबंधीत वर्णन है।
#84. अगदपान इस विषवेग चिकित्सा में निर्दिष्ट है।
#85. मृदुचर्ममांसपेशीषूत्पलनालेषु च …….योग्याम!
#86. आलेप का निषेध है ।
#87. ‘मुद्रिका शल्य’ इस अंगुली के अग्रिम पर्व के बराबर है।
#88. उष्ट्रग्रीव में बन्ध कौनसे दिन खोलनी चाहिए।
#89. क्षार की गणना इसमें की है ।
#90. मूक, मिन्मिन, वामन आदि विकार … है।
#91. शल्यतंत्र की संख्या इस अध्याय में आयी है ।
#92. वातपित्त प्रकोप से उत्पन्न व्रण से इस के समान गंध आती है।
#93. त्रिभिर्दोषेनाक्रान्तः श्यावौष्ठः पिडकीसमः अवेदनो निरास्त्रावो व्रण … ।
#94. उदर भाग पर बंध बांधना चाहिये ।
#95. अग्राही जलौका के लक्षण है ।
#96. यह गण अभ्यंतर विद्रधि नाशक है ।
#97. पशु के चिकित्सा में उपयुक्त जलौका है ।
#98. अविदग्धा एवं विदग्धा भेद से रसभेद होते है। सु.उ. 63/4
#99. तापस्वेद इस दोष का नाश करता है।
#100. सुश्रुत संहिता के इस स्थान में कायचिकित्सा का वर्णन है ।
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