Full Syllbus Test – 18
Results
#1. हृदय निम्न में से यह भाव है। (चरक)
#2. कलियुग इस लोकगत भाव का पुरुषगत भाव है ।
#3. निम्न में इन अस्थियों की संख्या 1 है। (चरक)
#4. मासि सर्वेन्द्रियाणि सर्वांगावयवाश्च योगपद्येनाभिनिर्वर्तन्ते ||
#5. निम्न में से यह आहारपरिणामकर भाव है ।
#6. पित्त का परिमाण कितने अंजली है ?
#7. इस गर्भवती स्त्री की संतान उन्मत्त होती है।
#8. ….. तु यस्यां छिन्नायां ताम्यत्यन्ध इव च तमः प्रविशति यां चाप्यधिष्ठायारूंषि जायन्ते । (च.शा. 7/4)
#9. निम्न में से यह सद्योगृहित गर्भा के लक्षण है ।
#10. सर्वप्राणिनां सर्वशरीरव्यापिनी यह कौनसी कला है?
#11. शौनक मुनि के अनुसार गर्भ में इस अवयव की उत्पत्ति प्रथम होती है ।
#12. मांसपेशियों कुल संख्या होती है । (चरक)
#13. सिरामर्म कितने है?
#14. मांसासृक्कफमेदः प्रसादात् …..
#15. क्लेशक्षमो यह इस प्रकृति का लक्षण है।
#16. स्थिरीभवत्योजः। (सुश्रुत)
#17. मांसबह स्रोतस का यह मूलस्थान नहीं है।
#18. वाग्भट के अनुसार आधार कितने है?
#19. शीघ्रवाही निम्न में से कौनसी सिरा है? .
#20. अवेध्य सिरायें है
#21. . ज्वर इस स्रोतस के दृष्टि का लक्षण है। (चरक)
#22. स्थौल्यका क्रिया क्रमेण’ यह इसकी चिकित्सा हैं। अ.सं(ग्रह )
#23. बातलानां च सेवनात्’ यह इस स्रोतस के दुष्टि का हेतु है (चरक) A)
#24. प्रभा के संदर्भ में योग्य विधान है ।
#25. मूढसंज्ञता यह निम्न में से इसका लक्षण है। (सुश्रुत )
#26. युक्तस्तीशीतेनक्ष्णाद्याः … कुर्वते ।
#27. निम्न में से इसको अङ्गआहाररसयोनित्वात्ंफ कहा है ।
#28. सुश्रुत के अनुसार ओज गुणात्मक होता है।
#29. तर्पयन्ति सदा …सरितः सागरं यथा । ( सुश्रुत )
#30. तिमिरदर्शन यह निम्न में से इसका लक्षण है ।
#31. कफ से दूषित रक्त होता है । ( सुश्रुत )
#32. मेद निम्न में से इस स्रोतस का मूलस्थान है । (चरक)
#33. वात का बस्ति यह स्थान निम्न में से इस आचार्य ने बताया है।
#34. संधिवेदना निम्न में से इसका लक्षण है।
#35. शारंगधर के अनुसार संधि यह स्थान इस दोष का है।
#36. सुश्रुत के अनुसार प्राकृत / निराम पित्त का रस है ।
#37. संधानकर शरीरस्य यह इस दोष का कर्म है। (चरक)
#38. अङ्गरसधातुर्हि विक्षेपोचितकर्मणा यह निम्न में से इसके संदर्भ में कहा है । (चरक)
#39. मेदोधातु का उपधातु है। (चरक)
#40. प्रत्यय निम्न में से इसका पर्याय है ।
#41. दोषदुष्याश्च यह निम्न में से कौनसा हेतु है ?
#42. वातिक शोथ में बातहर एवं शोथहर दशमूल क्वाथ का प्रयोग यह कौनसा उपशय है ?
#43. उपद्रव का वर्णन चरकाचार्य ने निम्न में से इस अध्याय में किया है ।
#44. निम्न में से यह क्षुदुगारविधातकृत है ।
#45. आगंतबो दुर्बलस्य बलवत् विग्रहात् यह निम्न में से कौनसा व्याधि है ?
#46. औषचोषपरिदाह धूमायन यह निम्न में से इसका लक्षण है
#47. निम्न में से यह आमवात का सामान्य लक्षण है ।
#48. द्विदोषज शूल होता है ।
#49. गलगण्ड का यह प्रकार माधवनिदान में वर्णित नहीं है।
#50. मावनिदान में उपदंश के प्रकार है।
#51. माधवनिदान ग्रंथ में विसर्प के दूष्य है ।
#52. मंडलाकार मसूरिका इस धातुगत अवस्था में उत्पन्न होती
#53. संधिगतयात में निम्न में से यह लक्षण मिलता है।
#54. माधवनिदान के अनुसार छर्दि का उपद्रव है ।
#55. सृष्टि उत्पत्तिविषयक अंधपगुन्याय किसने बताया ?
#56. इन्द्रिय के द्वारा द्रव्य, गुण एवं जाति का ज्ञान इस सन्निक होता है ।
#57. निश्चितसाध्यवान्
#58. काल निम्न में से होता है।
#59. संयोगनाशको गुणो…
#60. मूलाधार चक्र में कितनी दले होती है।
#61. दंतधावन के काल है ।
#62. भोजने च…वारि ।
#63. लवण रस से इस धातु की वृद्धि होती है।
#64. रस के अनुसार आहार सेवन क्रम है। (नि.र.)
#65. गोधूम होता है।
#66. मुद्र होता है।
#67. यह विषदोष का नाश करती है ।
#68. दाहक्षतक्षयहर निम्न में से यह फल है
#69. गोदुग्ध में कितने गुण होते है ? (चरक)
#70. हृदिवेदना यह इस विषवेग का लक्षण है। (सुश्रुत)
#71. शोफहर चिकित्सा इस विषवेग में करते है । (चरक)
#72. निम्न में से इस गुण के कारण विष मर्मघ्न होता है। (चरक)-
#73. स्थावरविष में यह लक्षण मिलता है ।
#74. विशेपक्रम में इस उपक्रम के पश्चात् अग्निदाह उपक्रम आया है ।
#75. मण्डलीसर्प की विष वृद्धि इस अवस्था में होती है। (चरक)
#76. क्षीरविष कितने है ?
#77. दवकर सर्प कितने है
#78. विषाक्त मस्तु में राजी उत्पन्न होती है।
#79. सुश्रुत ने वातज कीट कितने बताये है?
#80. तगर, कुटज, गुंजा इन द्रव्यों का समावेश निम्न में से इन द्रव्यों में होता है ।
#81. यंत्रस्थाल्युपरी स्थाली न्युब्जां दत्त्वा निरंधयेत् । यह कौनसा यंत्र है?
#82. द्विहस्त चतुरस्त्र यह इस पुट का परिमाण है ।
#83. रक्त धातु निम्न में से इसका पर्याय है।
#84. मण्ड एवं पेया में क्रमशः … गुना जल होता है।
#85. लोहधातु का द्रवणांक है ।
#86. तुत्थ का शोधन इसमें करते है । (र.र.स. )
#87. विकट यह इसका अग्राह्य स्वरूप है ।
#88. ईषत् पीतश्च रुक्षायो दोषयुक्तश्च । यह इस पारद का वर्णन है ।
#89. लोहं लोहांतरे क्षिप्तं ध्यातं निर्वापितं द्रवे । पाण्डुपीतप्रभं जातं. इति अभिधियते ॥ ( र. र. स.)
#90. पारद के मूर्च्छाव्यापत्तिनाशनार्थ यह संस्कार करते है ।
#91. निर्वक्रगोलकाकारा पुटनद्रव्यगर्भिणी । … इति सा प्रोता सत्त्वरद्रवरोधिनी । ( र. र. स.)
#92. शंखिया के संदर्भ में जोडियों का मेल करे । 1. स्फटिकाभ 2. हरिद्राभ 3. शंखाभ >> i) पाण्डु ii) श्वेत ii) पीत >> a) अधम b) मध्यम c) उत्तम
#93. उदुम्बर निम्न में से इसका पर्याय हैं।
#94. औषध सिद्ध तैल, घृत, वसादि इनकी सवीर्यतावधी होती है ।
#95. क्वाथ की सेवन मात्रा है।
#96. कल्क में मधु, घृत, तैल इनकी मात्रा प्रक्षेपार्थ है ।
#97. तालखर्जूररसैः संधिता निम्न में से है । (शारंगधर)
#98. चंद्रप्रभा वटी का रोगाधिकार है। (भै.र.)
#99. राजमृगांकरस का रोगाधिकार है । ( भा. प्र . )
#100. लोध्र का वीर्य है ।
#101. उत्तानपत्रक निम्न इसका पर्याय है ।
#102. पाटला द्रव्य की दोषघ्नता है।
#103. Indian dill fruit इसका English नाम है।
#104. Apium glucoside is found in …….
#105. गंभारी का रस है ।
#106. अपराजिता के पुष्पवर्ण के अनुसार प्रकार है ।
#107. बस्तिशुद्धिकर, चेतोरोगहृत् कौनसा द्रव्य है ।
#108. ऋद्धि – वृद्धि का प्रतिनिधि द्रव्य है ।
#109. निम्न में से यह चंदनप्रकार व्यंगनाशक होता है ।
#110. स्वगवेधुका निम्न में से इसका पर्याय है ।
#111. पाठा इस द्रव्य की Family है ।
#112. Achyranthes Aspera is latin name of …….
#113. कुष्ठ का स्वरूप होता है।
#114. विशेषेण मनुष्याणां … परिकीर्तितः ।
#115. अश्वगंधा एवं शतावरी इस स्कंध के द्रव्य है ।
#116. राजनिघण्टु में औषधियों के नामकरण के आधार बताये है
#117. समुद्रफेन निम्न में से इस गण का द्रव्य है । (चरक)
#118. निम्न में से इन द्रव्यों का समावेश मधुरत्रय में होता है । (रा.नि.)
#119. परिणाम लक्षणो…I(र.बै.)
#120. अकाले बाहमानया गर्भेण पिहितोऽनिलः | यह इस योनिव्याप का हेतु है।
#121. कुटज, कटुका, अश्वगंधा क्वाथ का प्रयोग इस रजोदुष्टी में करते है ।
#122. किक्विस में निम्न में से ये लक्षण मिलते है । (बा.शा.)
#123. हारीत के अनुसार गर्भोपद्रव है ।
#124. स्तनयोम्लनता स्तन्यासंभवोऽल्पता वा ।
#125. पंचममास में गर्भचलन होने पर यह चिकित्सा प्रयुक्त होती है । (यो.र.)
#126. योनिः – लम्बा …
#127. शरीर में आर्तव का प्रमाण कितने अंजली होता है?
#128. क्षीण रजोदुष्टि में दोषप्राधान्य है।
#129. किंशुकोदक रक्तस्राव निम्न में से इस प्रदर में होता है ।
#130. कार्श्य, वैवर्ण्य जननी यह लक्षण इस योनिव्यापद का है। (चरक)
#131. वामिनी योनिव्यापद में दोषप्राधान्य होता है। (सुश्रुत)
#132. तिलपुष्पप्रतिकांश कौनसा योनिकंद होता है।
#133. .. सोमरोग में होने वाला स्राव होता है ।
#134. . शीताः सेका प्रलेपाश्च विरेकः पथ्यभोजनम् । यह निम्न में से इसकी चिकित्सा है ।
#135. हारीत के अनुसार उत्फुल्लिका व्याधि की चिकित्सा है ।
#136. 13 अत्यय निम्न में से इस व्याधि का पर्याय है ।
#137. बालकों के लिये क्रिडनक होने चाहिए ।
#138. कर्णवेधन निम्न में से इस मास में करते है । (अ.सं.)
#139. कुमारी / कन्याओं में दन्तजन्म होता है ।
#140. उदकपात्रेऽवसीदेत् यह निम्न में से कौनसा स्तन्य है ? :
#141. सुदर्शनामूल-चूर्णादंजनं स्यात् ……..
#142. हारीतोक्त ‘क्षार-क्षीरा’ यह स्तन्यदोष निम्न में से किस कारण होता है?
#143. नाभिनाल छेदन कितने अंगुल पर करना चाहिए? ( अ.ह.)
#144. …एव मासि कृतरक्षा होममङ्गलस्वस्त्ययनस्य सूर्योदयदर्शनोपस्थानं, प्रदोषे चन्द्रमसः । (काश्यप)
#145. सत्य वचन चुनिए ।
#146. शिरो न धारयति यह बालकों के इस व्याधि का लक्षण है । (काश्यप)
#147. श्वग्रह का वर्णन निम्न में से इस आचार्य ने किया है।
#148. बालकों में वृषणकच्छू इस व्याधि में दोष दूष्य प्राधान्य है । – (सुश्रुत)
#149. रास्ना- ना-कर्कटकं भाङ्गीं चूर्ण मधु यह निम्न में से कौनसा योग है?
#150. वर्धमान पिप्पली रसायन की उत्तम मात्रा है। (चरक)
#151. अंसपार्श्वाभिताप, सन्तापः करपादयोः, ज्वर सर्वाश्चेति ये इस व्याधि के सामान्य लक्षण है। (चरक)
#152. दन्त्यारिष्ट निम्न में से इस व्याधि का रोगाधिकार है । (चरक)
#153. शीतकामित्व, कण्ठधूमायन यह इस व्याधि के पूर्वरूप है । (चरक)
#154. सेवमानो यदौचित्याद्वाजीवात्यर्थ वेगवान् । नारीस्तपर्यते तेन वाजीकरणमुच्यते ॥ संदर्भ ?
#155. बाह्याभ्यन्तर स्नेह प्रयोग यह इस बातव्याधि की चिकित्सा है । (चरक)
#156. स्निग्धं महत्सम्परिवृत्तनाभि भृशोन्नतं यह इस उदररोग का लक्षण है । (सुश्रुत)
#157. जरापुष्पाभ यह शिलाजतु होता है । (चरक)
#158. मार्गावरोधज वातज उन्माद में यह चिकित्सा प्रयुक्त होती है । (चरक)
#159. स्त्रीषु अहर्षणम् यह इस व्याधि का लक्षण है। (चरक)
#160. पित्तज विसर्प में दोषाधिक्य रहने पर यह चिकित्सा करनी चाहिए | ( चरक )
#161. शूलं तु पीड्यमाने च पाणिभ्यां लभते सुखम् | यह इस वातव्याधि का लक्षण है । (चरक)
#162. कम्पते प्रदेशाद् दन्तान् यह इस व्याधि का लक्षण है। (चरक)
#163. ग्रन्थि यह निम्न में से इस व्याधि का प्रकार है ।
#164. मञ्जिष्ठमांसधावन सन्निकाश मलप्रवृत्ति यह इस अतिसार का लक्षण है। (चरक)
#165. अविल प्रभूतमूत्रलक्षणाः ये इस व्याधि का सामान्य लक्षण है ।
#166. वातकृद्वा कफहरं कफकृद्वाऽनिलापहम् । कार्यं नैकान्तिकं ताभ्यां प्रायः श्रेयोऽनिलापहम् ॥ .. संदर्भ ?
#167. दारुण, चारुण ये निम्न में से इस व्याधि के पर्याय है। (चरक)
#168. निम्न में से इस तृष्णा में वमन वर्ज्य है। (सुश्रुत )
#169. गुडूच्यादि घृत इस व्याधि का रोगाधिकार है ! (चरक)
#170. कर्णमूल में सुदारुण शोथ यह इस व्याधि का उपद्रव है । (चरक)
#171. सिघ्न कुष्ठ में दोषप्राधान्य है । (चरक)
#172. कफजगुल्म की चिकित्सा है। (सुश्रुत)
#173. प्रवाहिका व्याधि की चिकित्सा निम्न में से इस व्याधि के समान है। (सुश्रुत)
#174. पुमाञ्जातबलादिकं वाजीकरण पाद में कुल योग वर्णित है ।
#175. निम्न में से यह व्याधि अविरेच्य है । (चरक)
#176. निरूहबस्ति के बस्ति असम्यक् योग सम्भव व्यापद है। (चरक)
#177. आचार्य शौनक ने दोषहरणार्थ इस द्रव्य को श्रेष्ठ माना है । (चरक)
#178. ग्रीष्म ऋतु में नस्य का प्रयोग कब करते है ? ( चरक )
#179. उत्तम शुद्धि में द्रव्य निर्हरण होता है। (चरक)
#180. मृदु, अनवस्थित शोथ ये इस शोफ के प्रकार है ।
#181. अर्श यन्त्र का निर्माण निम्न में से इस द्रव्य से करना चाहिए । (सुश्रुत)
#182. मधुकपुष्पवर्णा यह इस अश्मरी का लक्षण है । (सुश्रुत)
#183. यंत्रों के कुल प्रकार है । (सुश्रुत)
#184. मृतपशुसिरा, उत्पलनाल इन पर यह योग्याकर्म करना चाहिए।
#185. संधिकूर्चकश्रूस्तनान्तरतलकर्णेषु … ।
#186. दुष्ट व्रण के कुल प्रकार है । (चरक)
#187. परिशुष्काल्पमांसानां गंभीराणां तथैव च । कुर्याद् ..
#188. निम्न में से यह वातज भगन्दर है ।
#189. अभ्यज्य सर्पिषा पानं … कुशोत्तरम् । वस्त्रपट्टेन बध्नीयान्न च व्यायाममाचरेत् ॥
#190. पिप्पली, अजाशकृत्, गोदन्त, शर, शलाका इनसे इस स्थानगत अग्निकर्म करते है।
#191. प्रतिसारणीय क्षारप्रयोग योग्य व्याधि है ।
#192. क्षुराकारं छेदभेदनपाटने । (वा.सू.)
#193. शलाका यंत्रों की संख्या है। (सुश्रुत)
#194. विद्रधि के प्रकार है। (सुश्रुत)
#195. सर्पफणामुखी यह शलाका यंत्र इस कर्मार्थ प्रयुक्त होता है । (सुश्रुत)
#196. खर्जूरफलवर्णाभ पिडका इस ओष्ठरोग का लक्षण है ।
#197. कफदुष्ट रक्तस्रावणार्थ इसका प्रयोग करते है। (सुश्रुत)
#198. अतिरक्तस्त्राव चिकित्सार्थ निम्न में से योग्य क्रम है ।
#199. कर्णवेधन इस मास में करना चाहिए। (सुश्रुत )
#200. शारदा व्याख्या नामक टीका निम्न में से इस ग्रंथ पर है।
#201. क्षारगुण है (वाग्भट)
#202. मांडव्यतंत्र यह इस विषय का ग्रंथ है।
#203. रससंकेत कालिका इस ग्रंथ के लेखक है ।
#204. मैत्रायणी निम्न में से इस वेद का ब्राह्मण है ।
#205. कर्णार्श के भेद है। (सुश्रुत )
#206. नासागत रोग है । (वाग्भट)
#207. बलातैलं सर्वथैवोपयोज्यं यह इस नासारोग की चिकित्सा है।
#208. स्पर्शासहत्व यह इस शिरोरोग का लक्षण है ।
#209. अनंतबात में यह चिकित्सा प्रयुक्त होती है ।
#210. नाडीस्वेदोऽथ वमनं धूमो मूर्द्धविरेचनम् । विधिश्च कफहत् सर्वः … व्यपोहति । (सुश्रुत )
#211. खर्जूरफलवर्णाभ पिडका इस ओष्ठरोग का लक्षण है ।
#212. दंसगत रोगों की संख्या है।
#213. असाध्य जिव्हागत रोग है ।
#214. दंतपुप्पुट में यह चिकित्सा प्रयुक्त होती है ।
#215. शोफो महानन्त्रजलावरोधी तीव्रज्वरो यह इस व्याधि का लक्षण है।
#216. सुश्रुत के अनुसार क्षार प्रतिसारण के भेद है
#217. कटुकांजन इस पात्र में रखना चाहिए ।
#218. शुक्लगत रोगों में तर्पण की मात्रा है । (सुश्रुत )
#219. रोपण पुटपाक की मात्रा है। (शारंगधर)
#220. सिराजाल निम्न में से कौनसा व्याधि है ?
#221. कंठरोगों में कर्णपूरण की मात्रा है ।
#222. यथोत्तर बलवान होते है । (अ.सं.)
#223. अपगलन निम्न में से हैं।
#224. शुक्लगंत नेत्ररोग है । (सुश्रुत)
#225. पाषाणगर्दभ इस क्षुद्ररोग में दोषाधिक्य है ।
#226. यौवनपिडका की विशेष चिकित्सा है ।
#227. … जर्जरीकरोति । (चरक)
#228. हितराम जलचरपक्षी वसा है।। (चरक)
#229. मूत्रबद्धता यह लक्षण इस वेगधारण से उत्पन्न होता है ।
#230. रसोऽपि श्लेष्णवत्’ यह सूत्र इसके संदर्भ में है ।
#231. …पुनः स्वाभाविकानां द्रव्याणामभिसंस्कारः ।
#232. वेद्यसंदेहभंजन इस ग्रंथ के रचयिता है।
#233. फलिनी द्रव्य है । (चरक)
#234. उदररोगघ्न होता है। (चरक)
#235. उपरोधिकादधि सिद्ध यवागू होती है । (चरक )
#236. सर्पदष्ट में स्नेह की मात्रा प्रयुक्त होती है । (चरक)
#237. स्वेदन योग्य व्याधि है । (चरक)
#238. राजयक्ष्मा यह मार्गगत व्याधि है । (चरक)
#239. वाक्ग्रह यह वमन के इस योग का लक्षण है । (चरक)
#240. सामान्यज व्याधियों की कुल संख्या है । (चरक)
#241. स्त्रीषु असंयम इसका निम्न में से इसमें समावेश होता है। (चरक)
#242. फलासय है । (चरक)
#243. मुखबोधन यह इस रस का कर्म है। (चरक)
#244. अम्लरस और दुग्ध सेवन है। (चरक)
#245. बलवर्धनानां । ( चरक )
#246. वाजीकरण औषध का सेवन काल है। (सुश्रुत)
#247. विदग्धाजीर्ण में यह चिकित्सा प्रयुक्त होती है। (वाग्भट)
#248. बुद्धिमान होना चाहिए। (वाग्भट )
#249. बृंहणीयानाम् । (चरक)



