Full Syllbus Test – 1
Results
#1. शंखभस्म द्वारा मांस का न्हास करना है। (च.सू.1/45)
#2. आयुर्वेद का अधिकरण है। (च.सू.1/47)
#3. संयोगे च विभागे च कारणम्। इसका लक्षण है। (च.सू.1/52)
#4. चरक के अनसार तंत्र का प्रयोजन है।
#5. समधुरं किञ्वित दोषघ्न क्रिमिकुष्ठनुत्। इस मूत्र का गुण है। (च.सू.1/102)
#6. क्षीरगोधारस से निर्मित यवागू इसके साथ देने का विधान है। (च.सू.2/33)
#7. द्रव्यादापोथितत्तोये तत्पुनर्निशि संस्थितात्। (च.सू.4/6)
#8. अक्षीव, किणिही, केबुक, गण्डीर एवं आखुपर्णी इस महाकषाय के द्रव्य संग्रह है।(च.सू.4/10/15)
#9. निम्न में से प्रायोगिक धूमधाम का काल नहीं है।(च.सू.5/34)
#10. तप तपस्य……..।(सुश्रुत)
#11. वैद्ध एवं परिचारक में यह गुण समान नहीं, है। (च.सू.9)
#12. रक्तमोक्षण का समावेश इस वेगनिरोधज रोग की चिकित्सा है। (च.सू.7/15)
#13. “सहस्य प्रथमें मासि”में इस दोष का मिर्हरण करे। (च.सू. 7/46)
#14. इस त्रतु में अणुतैळ नस्य का प्रयोग करना चाहिए। (च.सू, 5/46)
#15. विद्धादेकपथं रोगं नातिपूर्णचतुष्पदम्। इस प्रकार के रोग इस भेद में समापिष्ट है। (च.सू.10/16)
#16. मथ्य, मन्थन और मन्थान इन तीनों के सोंग से अग्नि की उत्पत्ति होती है। इस प्रमाण का उदाहरण है।(च.सू. 11/24)
#17. जातिस्मरण’इस प्रमाण द्वारा पुनर्जन्म की सिध्दि का आधर है। (च.सू.11/30)
#18. आचार्य कुश ने वातकळाक्ळीय अध्याय में दीर्घज्जीवितीय अध्याय में वात के इस गुण का अधिक वर्णन किया है।(च.सू.12/14)
#19. प्रवर्तन स्त्रोतसा’ वायु का कर्म है। (च.सू.12/7)
#20. शीते रात्रौ पिबन् स्नेहं नरः शळेष्मघिकोपि वा। आनाह अरुचि शूळं……वा समृच्छति। (च.सू.13/21)
#21. मन्दविभ्रंशा, न च अतिबळहारिणी’स्नेह की मात्रा है। (च.सू.13/37)
#22. आमाशय में वात दोष प्रकोप होने पर सर्वप्रथम चिकित्सा करे। (च.सू.14/9)
#23. स्तम्भः प्रमोहः शून्यता दरः तता जीर्णे च अत्यर्थवेदना। इसका लक्षण है। (च.सू.17/31)
#24. च.सू.17 में क्षय के कुळ प्रकारों का वर्णन है।
#25. प्रततं वातरोगी’इसका ळक्षण है। (च.सू.17/68)
#26. ……..पृष्ठकटिग्रह। इस अन्तर्विद्रधि का निदाल है।
#27. चरक के अनुसार शोथ के उपद्रव है। (च.सू.18/18)
#28. यस्य वातः प्रकुपितः कुक्षिमाश्रित्य तिष्ठति। नाधोभ्रजतिनायुर्प्वम् .. स्तस्य जायते। (च.सू.18/32)
#29. शुष्कस्फिक उदरग्रीवा’ळक्षण है। (च.सू.21/15)
#30. वृषता क्ळीबता, ज्ञान अज्ञान, पुष्टि कार्श्य इस द्वन्द्वज कर्मों का संबंध है। (च.सू,21/36)
#31. ळंघन के भेद में संशुद्धि के प्रकार वर्णित है। (च.सू. 22/18)
#32. मर्मस्थ’रोग…चिकित्सा से साध्य होते है। (च.सू.22/30)
#33. मुक्त्वा दिवा प्रस्वपतां’यह संदर्भ अससे संबंघित है।(च.सू.24/5)
#34. कळिप्रिय’ इस मदरोग का ळक्षण है। (च.सू.24/31)
#35. आत्रेय भिक्षु ने इस वाद का वर्णन किया है। (च.सू.25/25)
#36. पत्र शाक में आहिततम् शाक है। (च.सू. 25/39)
#37. शास्त्रसहितस्तर्कः……..।(च.सू.25/40)
#38. रसानुसार ग्रव्यों के भेद है। (च.सू.26/14)
#39. वक्त्रशोधन एवं स्तन्यशोधन क्रमशः अस रस का कार्य है।(च.सू.26/41)
#40. जो पुरुष मळमूत्र का त्याग किये भिना अथवा भिना भूख ळगे भोजन करता है, उसे विरूध्द कहते है। (च.सू.26/97)
#41. कणठघ्न’ इस फळ का कर्म है। (च.सू.27/137)
#42. मृदूकरोति स्त्रोतांसि स्वेदं सञ्जनयत्यपि।(च.सू.27/251)
#43. वातासृग गुत्म वग्रोगजीर्णज्वरहरं परम्। (च.सू.27/282)
#44. तर्कशान्ति वीतंसमिच संश्रित्य वने शकुन्तिको द्विजान्। इस वैद्य के बारे में वर्णन है।
#45. आयुर्वेद शाश्वत है, क्योंकि……..। (च.सू.30/26)
#46. विषविकार को शान्त करने के ळिये शिरीषत्वक् कै प्रयोग करना, कहळाता है। (च.नि.1/10)
#47. रक्तपित्त की गतियाँ है। (च.नि. 2/8)
#48. सिकतामेह इस प्रमेह का प्रकार है। (च.नि. 2/10)
#49. अळाबुपुष्पसंकाशानि……….कुष्ठानीति विधान। (च.नि.517)
#50. शौचद्वेष तथा श्वयथु आनने इस प्रकार के उन्माद के ळक्षण है। (च.नि.7/6)
#51. चरकानुसार प्रभाव के प्रकार है।(च.वि..1/12)
#52. उपयोक्ता……….की अपेक्षा रखता है। (च.वि. 1/22)
#53. अळसक चिकित्सा सूत्र में उळ्ळेखनार्थ इसका उपयोग किया है। (च.वि.2/13)
#54. अनुमानजन्य ज्ञेय भाव है। अमळं………..। (च.वि. 4/8)
#55. ग्रहण्यास्तु मृदुदारुणत्वं यह अनुमानजन्य ज्ञेय भाव को इसते द्वारा जानना चाहिए। (च.वि.4/8)
#56. स्नाबुक कृमि वर्णन इस आचार्य ने किया हैं। (च.वि.7)
#57. पुनः अस्ति प्रत्यभावः अस्ति मोक्ष इति। शब्द प्रकार का उदाहरण है। (च.वि. 8/38)
#58. ……सा या विक्रयमाणा कार्यत्वमापद्यते। (च.वि. 8/71)
#59. विकार है। (च.शा. 1/63)
#60. कुळ नानात्मज विकार है। (च.सू.19)
#61. शुक्राशयं गर्भगतस्य हत्वा करोति वायु। (त.शा.2/18)
#62. सर्वेन्द्रयाणि सर्वाङ्गवयवास्व योगपद्यनाभिनिर्वर्तन्ते। (च.शा.4/11)
#63. स्नेहो………। (च.शा.5/15)
#64. शरीर में ळळाटास्थि की संख्या है। (च.शा.7/6)
#65. वाग्भट के अनुसार गोर वर्ण उत्पत्ति के ळिए कारणीभूत शुक्र होता है।
#66. गर्भिणी द्वारा ……..प्रकार के आहारविहार के कारण अबुध तथा मन्दाग्रि युक्त संतान का जन्म होता है। (च.शा. 8/21)
#67. कदाहारायाः स्नेहद्वेष’ इसके सम्प्राप्ति का कारण है। (च.शा. 8/26)
#68. काळमवतिष्ठतेतिमात्रम् अस्पन्दनश्व भवति। (च.शा.8)
#69. सातवें महिने में किक्विस नाशनार्थ गर्भिणी को दिये जाने वाळे मधुर औषधियों से सिध्द नलनीत की मात्रा है। (च.शा. 8/33)
#70. चरकाचार्य ने रक्षविधान में समाविष्ट किया है। (च.शा.8)
#71. चरकाचार्य ने इंन्द्रियस्थान में इस प्राकृतिक वर्ण को शारीरस्थान से अधिककहा है। (च.इं.1/8)
#72. स्वप्ने अम्भसि सीदति’ इस व्याधि का अरिष्ट ळक्षण है। (च.इं.5/21)
#73. ळळाट प्रदेशी धमनी जाळ इसका ळक्षण है। (च.इं.11)
#74. प्राणकामीय रसायनपाद में कुळ योग वर्णित है। (च.चि.1)
#75. वर्णानुसार श्रेष्ठ शिळाजतु प्रकार है।(च.चि.1/3)
#76. ज्वर का प्रभाव है। (च.चि.3)
#77. पिण्डिकोद्वष्टन……..धातुगत ज्वर का ळक्षण है। (सुश्रुत)
#78. रक्तधातुगत ज्वर की विशेष चिकित्सा है। (च.चि.3)
#79. दोष आमाशयस्थ होवे पर ज्वर का प्रकार हळाता हे।
#80. उध्वर्ग रक्तपित्त का चिकित्सा सूत्र है।(च.चि.3)
#81. महावास्लुपरिग्रह……….की विशेषता है। (च.चि.5)
#82. सुश्रुत के अनुसार ‘खदिरकषाय’ इस कफज प्रमेह प्रकार की चिकित्सा है।(च.चि.3)
#83. अस्वेदन महावास्तु यन्मत्स्यशकलोपमम्। इस कुष्ठ का ळक्षण हैष (च.चि.7)
#84. कुष्ठ व्याधि में नस्य शोधन उपक्रम करे। (सु.चि.9)
#85. ताळीशाद्य गुटिका का रोगाधिकार है।
#86. अमर्ष’ ळक्षण है। (च.नि.7)
#87. स्मृतिबुद्धिसत्वसम्प्शवाद्’ है। (च.चि.3)
#88. एक वर्ष पूराना उरःक्षत साध्यसाध्यता की दृष्टि से होता है। (च.चि.11)
#89. हपुषाद्य चूर्ण का रोगाधिकार है।
#90. दन्तमांसगत पाक इस व्याधि का विशेष ळक्षण है। (च.चि.12)
#91. व्रणशोफ का चतुर्थ उपक्रम है। (सु,सू.17)
#92. उदकोदर में तक्र इस अवुपाल के साथ देना चाहिए। (च.चि.13)
#93. अशितस्यादिस़्क्षोभाद् यानयानातिचेष्टितैः इस उदर रोग का विशेष हेतु है। (च.चि.13)
#94. सर्व अर्श अधिष्ठान है।(च.चि.14)
#95. नदभि अर्श का ळक्षण है। (सु.नि.2)
#96. उपवास यह मन्दाम्नि का कारण हो तब चिकित्सार्थ विशेष उपयोगी है।(च.चि.15)
#97. वाय्वम्बुतेजसा रक्त उष्मणा च अभिसंयुतम् । से इस धातु की निर्मिती स्पष्ट होती है। (च.चि.15)
#98. रोगाधिकारानुरूप दट में न बैठनेवाळा विकल्प चुनिए। (च.चि.15)
#99. शूनपात्राभिमेहनभ्’ पाण्डु व्याधि संबंधी है। (च.चि.14)
#100. आहारपरिणामान्ते भूयश्च ळभते बळम्। (च.चि.17)
#101. इस उदर रोग में स्वेदन छोडकर अन्य चिकित्सा कफोदर के समान करते है। (च.चि.13)
#102. विसर्जनी नामक गुदवळी का अंगुळी प्रमाण है। (च.नि.2)
#103. जत्रुमूल से उत्पन्न हिक्का है। (सु.उ.50)
#104. तमक श्वास चिकित्सा की दृष्टि से है। (सु.उ.51)
#105. प्रततं कासमानश्च ज्योतिषीव च पश्चति। ळक्षण है। (च.चि.8)
#106. कफज अतिसार का ळक्षण है। (च.चि.19)
#107. आमाज अतिसार के प्रकार का वर्णन इस आचार्य ने किया है। (च.च.19)
#108. विसर्प व्याधि का दुध्य है। (च.चि.21)
#109. इस प्रकार के विसर्प में विषाण से रक्तमोक्षण करे। (च.चि.21
#110. पीतं पीतं हि जळं शोषयतस्तावतो न याति शमम्। (च.चि.22)
#111. आजार्य सुश्रुत ने तृष्णा के भेदों का वर्णन किया है। (सु.उ. 48)
#112. इस तृष्णा प्रकार में वमन वर्ज्य है। (सु.उ. 48)
#113. मद्य और ओज गुणों के संबंध में गळत द्वंद्व पहचानीयें। (च.चि.24)
#114. प्रळापो……. मोहो युक्तायुक्त क्रास्तथा। लक्षण से युक्त मद की अवस्था है (च.चि.22)
#115. इस अश्मरी प्रकार का स्वरूप कुक्कटाण्प्रतिकांश जैसा होता है। (सु.नि. 3)
#116. मूत्रंमार्ग से अश्मरी निर्हरणार्थ इस शस्र् का प्रयोग करते है। (सु.चि.7)
#117. अग्निमार्दवम्’ यी इस हृद्रोग का ळक्षण है। (सु.उ.43)
#118. नासार्बुद में दोषदुष्टि होती है। (सु.उ.43)
#119. मदयूरघृत का रोगाधिकार है।
#120. पौराणिक श्रुति श्रवण एवं मनोबोधन चिकित्सा इस प्रकार के अरोचक में फशश्रुति देनेवाळी है। (सु.उ.57)
#121. गन्धतैळ का रोगाधिकार है। (सु,उ,57)
#122. निम्न में से यह रक्तज स्वरभेद की विशेष चिकित्सा है किन्तु सनेनिपातज स्लरभेद में वर्ज्य है। (सु.उ,57)
#123. क्षवथू’ इस का कर्म है। (च.चि.28)
#124. कुब्जत्व’ इसका ळक्षण है। (च.चि.28)
#125. शूळं तु पीड्यमाने च पाणिभ्यां ळभते सुखम्। इस वातव्याधि का ळक्षण है। (च.चि.28)
#126. स्वेदोत्यर्थ ळोमहर्षस्त्वम्दोषः सुप्तगात्रता। आवृत्तवात का लक्षण है। (च.चि.28)
#127. अचिन्त्यवीर्यो’ वायु संबंधी विशेष कथन आचार्य का है।
#128. सुश्रुतनुसार श्रेष्ठ वायु प्रकार है। (सु.नि.1)
#129. कोष्टुकशीर्ष में दोषदुष्टि होती है। (सुश्रुत)
#130. वातरक्त के प्रकार है। (च.चि.29)
#131. शल्यविज्ञान के चार म5लप्रवर्तक शल्यतन्त्रो. में से उपळब्ध तन्त्र है। (सु.सू.4/9)
#132. यन्त्र के प्रकार है। (सु.सू.7/5)
#133. कर्णसन्धिबन्धन योग्याभ्यास के ळिए प्रयुक्त होते थे।
#134. अग्निकर्म के प्रकार है। (सु.सू. 12/7)
#135. डल्हण के अनुसार आहाररस की अर्चिसन्तानवत गति इस पुरूष में होती है। (सु.सू. 14/16)
#136. साध्य कर्ण सन्धान विधि है। (सु.सू.16/11)
#137. सुश्रुताचार्य ने ळेप का वर्णन इस अध्याय में किया है।
#138. मन्दवेदना अल्पशोफता’ शोफ की अवस्था का ळक्षण है।(सु.सू.17/11)
#139. सिंघाणकप्रतिम् स्त्राव इस व्रण से होता है। (सु.सू.22/8)
#140. सत्तववान’ इस चतुष्पाद का गुण है। (सु.सू.34/21)
#141. स्वरहितकारी तथा विषनाशक मधु है। (सु.सू.45/139)
#142. व्यानवायु एवं श्ळेष्मा प्रकुपित होने से उत्पन्न बहिर्स्थिर किळवत् एर्श को कहते है। (सु.नि.2/20)
#143. इस प्रमेह पिडका के नाम से सुश्रुताचार्य ने शूकदोष प्रकार में समाविष्ट किया है। (सु.नि.14/3)
#144. गर्भधारण के बाद वर्ज्य है। (सु.शा.3/13)
#145. सृमर मांस सेवनेच्छा होने पर उत्पन्न होनेवाळा पुत्र होता है। (सु.शा.3/26)
#146. सर्वागङ्गप्रत्यङ्गविभागः प्रव्यक्तकरः गर्भ का इस मास का वृद्धिक्रम है। (सु.शा.3/13)
#147. मांससृततफमेदः प्रसादात्……..।(सु.शा.4/30)
#148. हस्तपाक्ष्ग्रीवामेढ्रषु ….. कुर्चा।(सु.शा.5/13)
#149. निम्न में से इस मर्म का समावेश सिरामर्म में होता है। (सु.शा.5/7)
#150. चशमूर्धता शक्षण इस मर्म पर आघात होने से उत्फा होता है।(सु.शा.6/28)
#151. शाखाप्रदेश में अवेध्य सिरार्ये है।(सु.शा.7/22)
#152. हनुसन्धिमध्यगताम् ….. । स स्थान पर सिरावेध इस व्याधि में निर्दिष्ट है।(सु.शा.8/17)
#153. सुक्षुतनुसार मेदवह स्त्रोतस का मूळ स्थान है। (सु.शा.9/12)
#154. गौर्यादि घृत का रोगाधिकार है।
#155. सुश्रुतनुसार माभिनाळ छेदन इतने अंगुळ पर करे। (सु.शा.10/13)
#156. गुदपाक की विशेष चिकित्सा है। (सु.शा.10/49)
#157. गर्भिर्णी में इस माह में बदरोदकेन आस्थापन बस्ति इस उदेश्य की पूर्ति के ळिए दी जाती है। (सु.शा.10/5)
#158. इस भगन्दर प्रकार में व्रण को विवृत्त (चौडा) नहीं करना चाहिए। (सु.चि.8/8)
#159. विगतत्वम् अङ्ग हि संघर्षात् अन्यथारि वा। इस व्रण का वर्णन है। (सु.चि.2/22)
#160. व्याधि के इस अवस्था में व्भणस्थ अर्धेन्दुवक्रया दहन का प्रयोग करे। (सु.चि.19/22)
#161. सुश्रुत संरिता में चिकित्सा स्थान में मुखरोग चिकित्सा अध्याय का वर्णन है।
#162. सुश्रुत ने नाडीस्वेदनार्थ नाडी की ळम्बाइ बतायी है। (सु.चि.32/7)
#163. उदर, प्रमेह और कुष्ठ रोगी चिकित्सा के बारे में सत्य कथन है। (सु.चि.35/22)
#164. धतुरा इस वर्ग का विष है।
#165. मूळविष तथा फळविष की कुळ मिळाकर संख्या है।(सु,क, 2/5)
#166. फेनागम इस स्धावर विष का विषाक्त ळक्षण है। (सु.क.2/9)
#167. ग्रीवास्तंभ पीतविण्मूत्रनेत्रता ळक्षण इस स्कंद विष प्रकार के विषाक्त ळक्षण से उत्पन्न होते है। (सु,क्2/11)
#168. आग्नेय कीटों के प्रकार है। (सु.क.8/11)
#169. इस कीट दंश में स्वेदन वर्ज्य है। (सु.क.8/46)
#170. रक्तसर्षप सन्त्रिभ’ हेती है। (सु.उ.3/11)
#171. निम्ल में से कृष्णगत विकार नहीं है। (सु.उ.5/3)
#172. पित्त विद्ग्ध दृष्टि…… पटळ में हुई तो भि वह रोगी रात्रि में देख सकता है। (सु.उ.7/3)
#173. इस प्रकार के अभिष्यंद में कौम्भ घृत देने का उळ्ळेख है। (सु.उ.12/4)
#174. तृतीय पटलाश्रित तिमिर चिकित्सा हेतु है। (सु.उ.17/53)
#175. कृष्णगत नेत्रव्याधि में इतनी मात्रा तक तर्पण धारख करे। (सु.उ.18/3)
#176. कटुकाब्जन रखने हेतु इस पात्र का उपयोग करना चाहिए। (सु.उ.18/61)
#177. कर्णबाधिर्य में दोषदुष्टि होती है। (सु.उ.20/8)
#178. परिहृष्टरोमता’…….का पूर्वरूप है। (सु.उ.24/5)
#179. विहङ्गगंधि’ इस ग्ररह का ळक्षण है। (सु.उ.27/10)
#180. रेवती ग्रह का पर्याय है। (सु.उ.31/11)
#181. खरस्पर्शा च मैथुने’ इस योनिव्यापद का ळक्षण है। (सु.उ.38/18)
#182. चिष्टब्धाजीर्ण से इस रोग की उत्पत्ति होती है। (सु.उ.56/3)
#183. सुश्रुत ने औषधि सेवन काळ बताये है। (सु.उ.64/67)
#184. सुश्रुत संहिता में कुळ रोगों की संख्या तथा द्रव्यों की संख्या क्रमसे बतायी है। (सु.उ.66/8)
#185. आर्तव को अष्टम धातु माना है।
#186. भारंगी के अभाव में इस द्रव्य को उपयोग में ळाना चाहिए। (यो.र.)
#187. वैद्य रूणनाडी परीक्षा कौनसे हस्त से और कितने बार करे। (यो.र.)
#188. तण्डुळजळवत् मूत्रप्रवृत्ति इस अवस्था में होती है। (यो.र.)
#189. योगरत्नाकर के अनुसार भोजनाग्रे ळेना चाहिए।
#190. हृत्पीडा व्याभि का पूर्वरूप है। (मा.नि.)
#191. क्रिमिकोष्ठेतिसार्येत मळ सासृक्कफान्वितम्। ळक्षण है ।
#192. स्फिक्पूर्वा कटिपृष्ठोरूजानुजंघापदं क्रमात् …….।
#193. छर्दि का उपद्रव है।
#194. युवानपीडका दोषप्रधान है।
#195. मसूरिका व्याधि इसके समान होती है।
#196. यह व्याधि अधिदैविक है।
#197. हेतु आहारआचारकाळादय……..हेतु है।
#198. पंचकर्मगुणातीत् ……. हन्ती मानवम्।
#199. मृदुश्चळोवळम्बी’ इस शोध का ळक्षण है।
#200. फेनवान पिण्डितः पाण्डुर्निःसारोगन्ध एव च।
#201. योनि शकटाकृति अपत्यळाभाय। संदर्भ है।
#202. हृदि श्ळेष्मानुपश्ळिष्टमाश्यावं राक्तपित्तकम् इससे संबंधित वर्णन है। (का.सु.27/15)
#203. अस्नातः स्नातरुपश्च स्नातश्चास्नात दर्शनः। वेक्ष्ना ळक्षण है। (का.सं.सु.25/33)
#204. जातस्य चतुरो मांसात्……प्रयोजवेत। (का.सु. 23/27)
#205. द्विपुट स्फोटीन राजीमन्त दन्त उत्पत्ति मांस में होती है। (का.सं.सु.20)
#206. स्वाटु रस दुग्ध का बाळक पर परिणाम होता है।
#207. संवर्धन घृत का अनुपान है। (का.सु.1)
#208. विपुळं स्त्रोतस कुण्डळसंस्थितम जरायुना परिवीतं स। (का.शा.शरीरविचयशारी/6)
#209. काश्यपनुसार दशप्राणायतनौ में स्थित महामर्म संख्या है।
#210. कोक्ळा गुडिका बाळकों में प्रयोग करे।
#211. जायत् नयव्याधि श्ळेष्म ळोहित संभव। (का.सं.खि.13/8)
#212. काश्यपसंहिता में बाळक संस्कार वर्णन खिळस्थान के इस अध्याय में किया है।
#213. काश्यपनुसार उपवेशन संस्कार मास में करे।
#214. कल्प चतुर्भद्र’ यहकल्प संबंधित है। (का.खि,8/22)
#215. ळेखनार्थ औषध प्रयोग इस काळ में करे।(शा.पु.2/4)
#216. कृत्वां पाकं मळानां यद्भित्वा बन्धमधो नयेत।(शा.पु.4/3)
#217. शाकपत्रप्रभा’ जव्हा दोष प्रकोप के कारण होती है। (शा.पु.3/14)
#218. वायु प्रकोप से नाडी गति समान होती है।
#219. शारंगधर ने चतुर्थ कळा को कहा।
#220. फुप्फुस संबंधी सही बचन चुनिए। (शा.पु.5/79) A) श्यासोश्वासप्रसाधन B) ऱक्तफेन उद्धभव C) बहुकोष्ठक D) उदानवायु आधार
#221. काळीयक की उत्पत्ति होती है। (शा.पु.5/83)
#222. शारंगधरनुसार कोष्ठ भेद है। (शा.पु.7/76)
#223. शारंगधरनुसार स्वरस की मात्रा है।
#224. क्वाथदिनां पुनः पाकात् घनत्वं सा……। शारंगधर
#225. शारंगधराचार्य ने कुळ बाळरोगों का वर्णन किया है।
#226. वमन पश्चात् विरेचन…..दिन बाद और निरूह बस्ति …वे दिन करे। (च.सि.)
#227. 1 शुक्ति अर्थात…….. मात्रा है। (च.सि.)
#228. कटिगुदजंघाअर्ति’ इस बस्ति निर्माता दोष से उत्पन्न ळक्षण होता है। (च.सि.)
#229. निःसृता जिव्हा इस शक्षण की चिकित्सा है।
#230. यथापूर्व ळघु क्रम से ळगावे। (अ.हृ.सू.6/25)
#231. विषमिश्रित तुषोदक पर…. वर्ण राडी उत्पन्न होती है। (अ.ह.सू.7/8)
#232. योनिदोषहरः विषविनाशन गण है। (अ.हृ.सू.15/27)
#233. वाग्भट के नुसार अंजन शळाका की ळंबाई होती है। (अ.हृ.सू.23/11)
#234. प्रभा के भेद है। (अ.हृ.सू.5/23)
#235. भावप्रकाश संहिता में प्रकरण संख्या है।
#236. वंशळोचन निर्याप्त यह वंश की कौनसी जाती से प्राप्त करते है? (भा.प्रा.)
#237. तिक्तं वमिहरं वर्णय व्यंगदोषत्रयापहम्। इस द्रव्य के गुणधर्म है। (भा.प्र.)
#238. तगर इस अवयव पर कार्य करता है।
#239. एरण्ड तैळ का आमवात पर आमयिक प्रयोग इस के साथ करे।(भा.प्र.)
#240. अपतन्त्रक चिकित्सा में ‘शुकनास घृत’ इस आचार्य का अवदान है।
#241. हारीत संहिता नुसार मुग्धा का वय विघाजन है।
#242. हारीत नुसार वात के नानात्सज व्याधि है।
#243. गर्भ के विकास के क्रस में 20 वे दिन गर्भ का स्वरूप बताया। (हारीत)
#244. योगरत्नाकर ने नस्य के ळिए यह तैळ श्रेष्ठ बताया है।
#245. मुखांग है। (योगरत्नाकर)
#246. आचार्य भेळ ने जळ को…… कहा है।
#247. तैळबिंदू परिक्षण इस आचार्य का अवदान है।
#248. स्नायुक रोग का वर्णन मिळता है।
#249. सर्वप्रथम ओज को ‘पंचरस’ कहा है।
#250. नाभिपाक एवं नाभिकुण्ळ का वर्णन मिळता है।