Charaka Viman Set – 3
#1. चरक ने हृदय का प्रमाण माना।
#2. कृमिनाशक ‘विड्ग घृत’ किसने बताया है।
#3. पिप्पली का रस और विपाक है।
#4. सिद्धान्त चतुष्ट्य है।
#5. विष्टब्धाजीर्ण कि चिकित्सा है। वाग्भट
#6. ग्रहणी का मृदु या दारूण होना,…. परीक्षा की सहायता से
#7. इस स्त्रोतस की चिकित्सा आमदोषवत करनी चाहिये ।
#8. कटु स्कंध का प्रथम द्रव्य है।
#9. अणवस्तिलाकृतयो बहुपादाश्च कृमि है।
#10. चरकानुसार सात्म्य किसका पर्याय है।
#11. विसूचिका व्याधी का आद्य चिकित्सा उपक्रम है।
#12. अस्थी एवं संधी इस स्रोतस का मूल स्थान है।
#13. सौसुराद’ है।
#14. किस परिषद में कभी भी किसी के साथा जल्प / वादविवाद नहीं करना चाहिए।
#15. विगृह्य संभाषा में ‘अविशारद’ को….. से पराजित करें।
#16. मेद…… इस स्रोतस का मूलस्थान है।
#17. अतिसंक्षोभ’ से कौनसा स्रोतस् दुष्ट होता है।
#18. जनपदध्वंस का मूल कारण है।
#19. जनपदोध्वंस के भावों में ‘धूम्रपवन’ किसका लक्षण है।
#20. विदग्धाजीर्ण की चिकित्सा इस उपक्रम द्वारा करनी चाहिए।
#21. सुश्रुत नुसार जंघा परिणाह
#22. सुश्रुत नुसार… व्याधि तीव्र होने पर पाष्णदाह करें।
#23. विकारआगम’….. का लक्षण है।
#24. ह्यग्निमारुतवृद्ध्या वातातपपरीतमिवाल्पमुदकमल्पो दोषः प्रशोषमापद्यते। यह दृष्टान्त से युक्त अपतर्पण का भेद, बलाबल से इसकि चिकित्सा है।
#25. औष्ण्यादामाद् भयात् पानादतिशुष्क अन्नसेवनात…. दुष्ट होती है।
#26. रोगी के प्रति चिकित्सा का आरम्भ करने को कहते है ।
#27. आयुर्वेद के पंचमहाभूत और त्रिदोषवाद कौनसे सिद्धान्त के उदाहरण है।
#28. इसके अनुसार अग्नि के चार भेद होते है च. वि. 8 / 12
#29. शिथिलमांसशोणिता’ लक्षण इसके अतिसेवन से होते है।
#30. प्रपाणी’ का शारीर प्रमाण है।
#31. अनुबन्ध इस भाव का अनुमानजन्य ज्ञेय भाव है।
#32. प्रतिज्ञायां पुनर्वचनं …… ।
#33. त्रेतायुग के मनुष्य की आयु
#34. आतंक’ किसका पर्याय है।
#35. …..सुखाव्याप्ति ।
#36. पक्षाश्रितयोर्वचनं ….
#37. …., जीर्णलक्षणोपक्षः ।
#38. सत्व में स्वल्पशरीरा ह्यपि जिजागन्तु महतीष्वतिपीडास्तथ ।
#39. पिप्पली का विपाक होता है?
#40. समशन’ करने से स्रोतस दुष्ट होता है।
#41. चरकानुसार कौनसा काल ‘ऋतुसात्म्य’ की अपेक्षा रखता है।
#42. ……. प्रतिकर्मसमारम्भः ।
#43. जनपदोदध्वंस का मुख्य कारण है।
#44. सर्वभूतेषु अहिंसा यह इस समय का उदाहरण है।
#45. हर्ष ….. । श्लोक पूर्ण करो ।
#46. चरक संहिता में कृमियों का वर्णन किस अध्याय में मिलता है।
#47. इस आहारविधी विधान के परीणाम स्वरुप दृढीकरोतिन्द्रियाणि का समावेश है।
#48. वायु विकृति का मूल कारण है।
#49. नियुद्ध इस दोष की चिकित्सा है।
#50. कृत्स्रो हि लोको बुद्धिमताचार्यः शत्रुश्चाबुद्धिमताम्’- उक्त सूत्र चरक संहिता के स्थान में वर्णित है।
#51. द्रव्य के इस गुण को प्रकृति कहते है।
#52. जनपदोद्ध्वंसनीय अध्याय के बारे में चर्चा….. प्रदेश में हुई।
#53. स्रोतस का पर्याय है।
#54. लघुव्याधित व्यक्ति संबंध में योग्य विधान चुनिए ।
#55. ….तु उपयोग नियमः ।
#56. जृम्भा’ यह लक्षण इस कृति के प्रभाव से उत्पन्न होता है।
#57. सुरासव विधान’ कौनसे दोष की चिकित्सा है।
#58. दुर्बलाग्नि’ इस स्रोतस का दृष्टी हेतु है ।
#59. उत्सादन’ कौनसे दोष की चिकित्सा है।
#60. वादामार्गसंख्या है।
#61. अपार्थक’ का समावेश इसमे होता है।
#62. जिज्ञासा नाम…..
#63. अन्नवह स्रोतस की विकृति में किसके समान चिकित्सा की जाती है।
#64. दोष प्रमाण’ का अनुमान किससे होता है।
#65. नाभिस्तनान्तरं जन्तोरामशय इति स्मृत-1 अशितं खादितं पीतं…. चात्र चिपच्यते।
#66. प्रतिषेधेन’ इस ज्ञेय भाव से अनुमान होता है।
#67. सु. नुसार रक्तज, पुरीषज, कफज कृमि संख्या अनुक्रमे
#68. निवृत्ति’ की परीक्षा त्रिविध रोग परीक्षा पद्धतीमें से इसके —- द्वारा की जाती है।
#69. तं द्विविध आमप्रदोषमाचक्षते भिषज विसूचिकाम्… च।
#70. अत्यशन’ इस स्रोतोदुष्टी का हेतु है।
#71. उदासीन’ यह…….का भेद है।
#72. प्लवन यह इस पुरुष की चिकित्सा है।
#73. यदा ‘प्रकृतहेतौ वाच्ये यद्विकृतहेतुमाह’ तत् किम् – (च.वि. 8 / 63)
#74. इस द्रव्य का अतिसेवन अन्धत्व के लिए कारणीभूत है ।
#75. अभ्युदय श्रवण का प्रयोग किस उपक्रम में बतलाया गया है।
#76. काल का अन्य नाम हैं।
#77. क्षीरपुर्णलोचना’ लक्षण सारत्व का है।
#78. भल्लातकास्थि को चरक ने किस स्कन्ध में रखा है।
#79. गुरुव्याधी से युक्त होनेपर भी लघुव्याधी जैसा प्रतित होता है, ऐसे पुरुष को कहते है।
#80. परीक्षक के गुण है।
#81. निम्न कृमि चिकित्सा का योग्य क्रम लगावे ।1. प्रकृतिविघात 2. अपकर्षन 3. निदानपरीवर्जन
#82. इस कृमि का निदान कुष्ठ व्याधि जैसा होता है ।
#83. सुखशीलता’ कौनसे दोष की चिकित्सा है।
#84. स्नायुक कृमि की दोष प्राधान्यता होती है।
#85. अष्टांग संग्रह नुसार आहारविधी विशेषावन है।
#86. लोमकूप इस स्त्रोतस का प्रमुख स्थान है।
#87. ….. से युक्त आहार सर्वदोष प्रकोपक होता है।
#88. कृमि चिकित्सार्थ इस ऋतु में उत्पन्न तिल का प्रयोग करना चाहिए।
#89. वृक्क’……. स्त्रोतस मुलस्थान है। चरक
#90. …….नाम पराजयप्राप्ति |
#91. मेदोवह स्रोतसं का मूलस्थान है।
#92. आयुष – क्षव ………..। अनुमान ज्ञेय भाव है।
#93. अभिष्यंदिभोजन’ इस स्रोतोदुष्टी का हेतु है ।
#94. विज्ञान……l अनुमानजन्य ज्ञेय भाव है।
#95. उल्लेखयेदादौ पाययित्वासलवण उष्णवारी…..
#96. आन्ध्य’ यह लक्षण इसके कारण होता है।
#97. अतिमात्रा आहार सेवन से उत्पन्न अंगमर्द इस दोष के कारण होता है।
#98. भोजनस्याप्रतिष्ठान’ भोजन का दोष है।
#99. सिराग्रन्थयो मरणं च ।’ लक्षण विद्धस्रोतस ।
#100. ……संङ्गेण ।
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80/100 – Dr. Alok Sharma